परसौं यानी 8 अगस्त को ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की 80वीं वर्षगांठ थी।

परसौं यानी 8 अगस्त को ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की 80वीं वर्षगांठ थी। उस दिन एक ऐसी परिवर्तनकारी शुरुआत हुई, जिसे तत्कालीन हुक्मरानों ने शुरुआत में ‘कुचल दिया गया’ मान लिया था। वे इतिहास का एक साधारण सबक बिसरा बैठे थे। बेहद साधारण दिखने वाली कुछ घटनाएं कभी-कभी बडे़ बदलावों को जन्म दे देती हैं। उन बगावती दिनों को याद कर आज हम अपने महान पुरखों को श्रद्धांजलि दे सकते हैं।
इसी दिन बंबई (अब मुंबई) के गोवालिया टैंक मैदान (अब अगस्त क्रांति मैदान) में आयोजित महासभा को संबोधित करते हुए मोहनदास करमचंद गांधी ने कहा था- ‘मैं आप सबको एक छोटा-सा मंत्र देता हूं। आप इसे अपने हृदय पर अंकित कर सकते हैं और अपनी हरेक सांस से इसे अभिव्यक्ति दे सकते हैं। यह मंत्र है- ‘करो या मरो’! या तो हमें आजाद भारत मिलेगा या हम इसे पाने के लिए मिट जाएंगे। हम लगातार अपनी गुलामी देखते रहने के लिए जिंदा नहीं रहेंगे।’
‘करो या मरो’ वे जादुई शब्द थे, जिनका आने वाले दिनों में बड़ा असर पड़ना था। 
हालांकि, कुछ लोगों का मानना है कि यह आंदोलन परवान नहीं चढ़ सका था। इसकी वजह यह है कि 9 अगस्त को महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल, अबुल कलाम आजाद सहित कांग्रेस कार्यसमिति के तमाम सदस्यों को ‘राजद्रोह’ के आरोप में गिरफ्तार कर सलाखों के पीछे डाल दिया गया था। अगले कुछ दिन दमन और जरूरत से ज्यादा शासकीय प्रतिहिंसा के थे। हकबकाए अंग्रेज अफसरों ने एक लाख से अधिक लोगों को बंदी बना लिया था। इन उपनिवेशवादियों को लगा था कि हिन्दुस्तानी न तो कुछ ‘कर’ सके और न ही ‘मर’ सके। इसकी एक वजह यह भी थी कि हिंदू महासभा, मुस्लिम लीग और राजे-रजवाड़े उनके साथ खड़े थे। कांग्रेस के भी कुछ नेताओं पर शक था कि उन्होंने गद्दारी की और बडे़ नेताओं के छिपने की जगह गोरे अधिकारियों को बता दी। सूरमाओं के इस देश में जयचंदों और मीर जाफरों की भी एक शर्मनाक परंपरा है।
उस समय भारत में छह सौ से अधिक रियासतें हुआ करती थीं। यह वह दौर था, जब हमारे अधिसंख्य स्कूलों में ‘ग्रेट ब्रिटेन’ का राष्ट्रगान गॉड सेव द किंग  गाया जाता था। ऐसे लोग ब्रिटिश सत्ता को अपना संरक्षक मानते थे। ताबड़तोड़ गिरफ्तारियों से उन्हें लगा कि आंदोलन असफल हो गया है, वे गलत थे। इस आंदोलन ने अहिंसक तरीके से राष्ट्रीय रूप ले लिया था। हिंसा न होने की वजह से अधिक हो-हल्ला नहीं हुआ और ‘राजभक्तों’ को गलतफहमी हो गई कि यह मौन, विराम का प्रतीक है। वे भूल गए कि थोपी गई संप्रभुता के बावजूद सदियों पुरानी भारतीय राष्ट्र की अस्मिता धूमिल नहीं हो सकी थी। ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ ने इस पहचान को और बल दिया था। भारत के राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम की सफलता के लिए इससे ज्यादा कुछ और जरूरी था? 
उधर, समूची धरती हलचल की शिकार थी। वह द्वितीय महायुद्ध का चरमोत्कर्ष काल था। 7 दिसंबर, 1941 को इस लड़ाई में अमेरिका की दखल ने साबित कर दिया था कि दुनिया अब दो भागों में बंट चुकी है और हार-जीत के लिए निर्दोषों के नरसंहार का यह सिलसिला फिलहाल खत्म नहीं होने वाला। अमेरिका महायुद्ध की शुरुआत से पहले 1929 में ही भयानक आर्थिक मंदी की चपेट में आ चुका था। उस समय के राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी रूजवेल्ट को लगता था कि यह लड़ाई और इससे उपजा राष्ट्रीय जोश न केवल हमें मंदी से उबारेगा, बल्कि संसार की सबसे बड़ी महाशक्ति बनने का अवसर प्रदान करेगा। नतीजतन, कार बनाने वाली अमेरिकी कंपनियां हथियार बनाने लगी थीं। इस महायुद्ध से निपटने के लिए अमेरिका ने जो राह चुनी, उसने रूजवेल्ट को सही साबित किया। द्वितीय विश्व युद्ध के समापन से आज तक अमेरिका संसार की सबसे बड़ी ताकत बना हुआ है। 
गांधी और उनके सहयोगी जानते थे कि इस अमेरिकी उभार से ब्रिटिश साम्राज्यवाद की चूलें जरूर हिलेंगी। तब तक दीख चला था कि ग्रेट ब्रिटेन पर दूसरी बड़ी लड़ाई महंगी पड़ रही है। उनकी अर्थव्यवस्था की चरमराहट जगजाहिर थी। लंदन तक में जरूरी चीजों की किल्लत महसूस की जाने लगी थी। दुकानों से जरूरी वस्तुएं नदारद थीं और लोग किफायत बरतने को मजबूर थे। 
यहां बताना जरूरी है कि 1914 से 1918 के बीच लडे़ गए प्रथम विश्व युद्ध में भारतीय सैनिकों ने गजब का योगदान किया था। अंग्रेजों ने उन्हें छलपूर्वक अग्रिम मोर्चों पर रखा था। अपने शौर्य और बलिदान से उन्होंने असंभव को भी संभव कर दिखाया था। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश हुकूमत ने ‘अगस्त प्रस्ताव’, ‘क्रिप्स मिशन’ आदि के जरिये मित्र-देशों और भारतीयों को भरमाए रखने की नीति अपना रखी थी। यही वजह है कि गांधी द्वितीय विश्व युद्ध में भारतीय सैनिकों की सहभागिता से असहमत थे, फिर भी हिन्दुस्तानी सूरमा अग्रिम पंक्तियों में झोंक दिए गए थे, क्योंकि वे तकनीकी तौर पर ‘ब्रिटिश रॉयल आर्मी’ का हिस्सा थे। इस जंग में 87 हजार से अधिक भारतीय जवान शहीद हुए। प्रथम विश्व युद्ध पहले ही 74 हजार हिन्दुस्तानी जांबाजों को लील चुका था। 
भारतीय मानस इससे मर्माहत था। हर कस्बे और गांव में इन शहादतों ने गम और गुस्से के बीज रोप रखे थे। ऊपर से कृषि प्रधान इस देश में अधिसंख्य लोगों के पास पेट भरने का अनाज तक न था। जमींदारों के कारिंदे कर वसूली के लिए मध्ययुगीन तरीके आजमाते थे। जो भी उन्हें देखता, उसके रोंगटे खड़े हो जाते। क्या आपको नहीं लगता कि ‘करो या मरो’ का नारा देने का यह सही समय था? मुझे कहने में कोई संकोच नहीं कि अगले पांच वर्षों की तमाम घटनाओं की नींव इस आंदोलन ने रखी। आगे चलकर हम भारतीय अहिंसक और हिंसक, दोनों तरीकों से अपनी अनूठी लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाने में सफल रहे। 
अब मौजूदा वक्त पर लौटते हैं। आजादी के इन 75 वर्षों में हमने शानदार तरक्की की। चार दशक पहले तक हमारे पास पेट भरने के लिए भोजन तक न था। आज जब रूस और यूक्रेन युद्ध की वजह से संसार भर में खाद्यान्न का भयावह संकट पैदा हो गया है, तब समूची दुनिया भारत की ओर उम्मीद भरी नजरों से देख रही है। अगर हमारे पास अन्न के भरे हुए भंडार हैं, तो यह भी सच है कि लगभग 19 करोड़ लोग प्रतिदिन भरपेट भोजन से वंचित हैं। इन दिनों गर्व करने के लिए हमारे पास बहुत कुछ है, पर सच्चाई यह भी है कि हम हिन्दुस्तानी अब तक तमाम आर्थिक और सामाजिक विरोधाभासों से मुक्त नहीं हो पाए हैं। 
आजादी की लड़ाई भारतवासियों ने मिलकर लड़ी थी, पर आज तरह-तरह के अलगावों के स्वर सुनाई पड़ते हैं। मतलब साफ है, ‘स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव’ अगर हमें गौरवान्वित करता है, तो नई उपजी चुनौतियों से पार पाने की प्रेरणा भी देता है।
VishramSinghYadavMainpuri@gmail.com

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