पिछले हफ्ते की तीन महत्वपूर्ण घटनाओं पर नजर डाल देखिए। ये सियासी पहलकदमियां 2024 में होने वाले आम चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेंगी।
हफ्ते की शुरुआत में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने नई दिल्ली में तमाम विपक्षी नेताओं से लंबी मुलाकातें कीं। वह अगर राहुल गांधी से मिले, तो उनके प्रमुख प्रतिद्वंद्वी अरविंद केजरीवाल के साथ भोजन किया। केजरीवाल भ्रष्टाचार के खिलाफ युद्ध में स्वघोषित जेहादी हैं, पर नीतीश सजायाफ्ता ओमप्रकाश चौटाला से भी मिले। उन्होंने वामपंथियों के विभिन्न धड़ों से भेंट की और मेदांता में स्वास्थ्य लाभ कर रहे मुलायम सिंह का भी हालचाल लेना वह नहीं भूले। इस दौरान सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव भी मौजूद रहे। आखिरी दिन उन्होंने वरिष्ठतम विपक्षी नेता शरद पवार से लंबी बातचीत की।
नीतीश इससे पहले पटना में तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव के साथ लंबी मुलाकात कर चुके हैं। आने वाले दिनों में गैर-भाजपा शासित क्षेत्रों के मुख्यमंत्रियों और विपक्ष के नेताओं से उनका संवाद तय है। इस मैराथन मशक्कत से क्या नीतीश कुमार विभाजनग्रस्त विपक्ष को एकजुट कर भाजपा को पछाड़ने का पराक्रम कर सकेंगे?
नीतीश और उनके सहयोगियों को लगता है कि भाजपा उत्तर और पश्चिम भारत में मौजूद 250 में से 200 सीटें जीतकर सत्ता में आई। अगर इनमें से 40 भी कम हो जाएं, तो तस्वीर का रुख बदल सकता है। उनका तर्क है कि 2019 में एनडीए दस राज्यों और केंद्र शासित क्षेत्रों- अरुणाचल, गुजरात, हिमाचल, हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली, त्रिपुरा, उत्तराखंड, चंडीगढ़ और दमन-दीव में संपूर्ण सीटें जीतने में कामयाब रहा। इस बडे़ भूभाग से 83 सांसद चुनकर आते हैं। इसके अलावा, उत्तर प्रदेश, असम, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड और बिहार के कुल 264 लोकसभा क्षेत्रों से भगवा दल को 184 सीटें हासिल हुई थीं।
इनमें से महाराष्ट्र और बिहार में एनडीए के प्रमुखतम घटक दलों ने दूसरा रास्ता चुन लिया है। इसी आधार पर उनका मानना है कि भाजपा अपने और अन्य छोटे दलों के बूते यह चमत्कार दोहराने में अब शायद ही कामयाब हो। इसके साथ ही उनकी नजर उन 11 राज्यों और केंद्र शासित क्षेत्रों पर है, जहां से भाजपा को एक भी सीट नहीं मिली थी। इनमें से अधिकांश में भगवा दल अपने दम पर कोई बड़ा करिश्मा करने की स्थिति में उन्हें नजर नहीं आता।
यह तर्क लुभावना लगता है, पर इसमें कई पेच हैं।
पश्चिम बंगाल का उदाहरण लें। 2019 के सीधे मुकाबले में भाजपा ने प्रदेश की 42 सीटों में से 18 हासिल की थीं। इसके बरक्स पिछले विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी ने अभूतपूर्व जीत हासिल की। यहां गौरतलब है कि 2021 के विधानसभा चुनाव में कांगे्रस को शून्य और वाम दलों को महज एक सीट मिली। ‘दीदी’, कांग्रेस और वाम दलों को लोकसभा चुनाव में भी दूर रखने की हामी हैं। गए गुरुवार को उन्होंने विपक्षी एकता की वकालत करते हुए कहा कि हम सोरेन, नीतीश और अखिलेश के साथ मिलकर चुनाव लड़ेंगे। कांग्रेस का नाम वह गोल कर गईं। कुछ ऐसा ही रवैया तेलंगाना के सत्तापति के चंद्रशेखर राव रखते हैं। जेडी-यू के एक आशान्वित नेता का दावा है कि नीतीश कुमार ने जैसे ही भाजपा से अलग होने की घोषणा की, उन्हें सबसे पहला फोन ममता बनर्जी ने किया। नीतीश आने वाले दिनों में पश्चिम बंगाल का दौरा करने जा रहे हैं। क्या बिहार के मुख्यमंत्री तीसरा मोर्चा बनाने की समर्थक ममता और केसीआर को ‘मुख्य मोर्चा’ गठित करने के लिए मना पाएंगे? यही नहीं, अरविंद केजरीवाल भी ‘जोड़-तोड़’ की राजनीति के खिलाफ हैं। यही वह मुकाम है, जो नीतीश कुमार की मंशा को पूरा करने में रोड़ा पैदा करता है।
इन तीनों के अलावा दो अन्य नेता विपक्षी एकता की राह का रोड़ा बन सकते हैं। वे हैं, अखिलेश यादव और मायावती। इन दोनों को साथ लाए बिना उत्तर प्रदेश का रण जीतना नामुमकिन है। बताने की जरूरत नहीं कि यह सूबा लोकसभा में 80 सदस्यों का योगदान करता है। इनमें से 64 पर भाजपा का कब्जा है। अगले चुनाव के लिए पार्टी ने 75 सीटों पर दांव लगा रखा है।
अब दो अन्य घटनाओं की बात।
राहुल गांधी ने कन्याकुमारी से बुधवार को ‘भारत जोड़ो’ यात्रा की शुरुआत की। वह इस दौरान कश्मीर तक जाएंगे। कन्याकुमारी से इस सफर की शुरुआत के पीछे उनका मकसद साफ है। कांग्रेस की अगुवाई वाला तथाकथित यूपीए दक्षिण भारत में अपेक्षाकृत मजबूत स्थिति में है। विंध्य के उस पार स्थित तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में कांग्रेस को 129 में से 27 सीटें मिली थीं, जबकि भाजपा ने 29 लोकसभा क्षेत्रों में विजय हासिल की। कांग्रेस को लगता है कि यदि विपक्षी एकता का माहौल पुरगर्म हुआ, तो दक्षिण से भाजपा को पहले जितनी सीटें मिलनी असंभव हैं। कांग्रेस को उबारने में हमेशा दक्षिण भारत ने बड़ी भूमिका अदा की है। इंदिरा, सोनिया और अब राहुल गांधी को जब-जब निराशा मिली, वे दक्षिण की शरण में गए। राहुल आज भी केरल के वायनाड से लोकसभा सदस्य हैं। पिछले चुनाव में अमेठी ने उन्हें ठुकरा दिया था।
इस दौरान एक और शख्स अपनी ताकत आजमा रहा है- अरविंद केजरीवाल। उन्होंने अपनी जन्मभूमि हिसार से बुधवार को ही ‘मेक इंडिया नंबर-1’ अभियान की शुरुआत की। वह भी इस दौरान देश के चुनिंदा हिस्सों में मतदाताओं से मिलकर अपनी बात रखेंगे। केजरीवाल पंजाब की जीत से उत्साहित हैं और प्रधानमंत्री एवं गृह मंत्री के गृह राज्य गुजरात में भी ताल ठोक रहे हैं। उन्होंने 2014 में मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ा था, पर नाकाम रहे थे। देखना यह है कि अब उनकी कोशिशें कितनी कामयाब होती हैं?
अब भारतीय जनता पार्टी पर आते हैं। यह ठीक है कि उसके साथ बड़े सहयोगी नहीं रह बचे, पर भाजपा का शीर्ष नेतृत्व इससे परेशान नहीं दीखता। वजह? मोदी, शाह और नड्डा की तिकड़ी भाजपा की हर हाल में जीत की अभिलाषा को सान चढ़ाती रहती है। अब तक आए सभी सर्वेक्षण लोकप्रियता के पैमाने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अच्छे-खासे अंकों के साथ अव्वल आंकते आए हैं। यह अकारण नहीं है कि नीतीश कुमार जिस दिन केजरीवाल और चौटाला से मिल रहे थे, उसी दिन अमित शाह और जेपी नड्डा ने अपने मंत्रियों के साथ पदाधिकारियों की बैठक में उन 144 सीटों पर खास नजर रखने और मोदी के नाम पर वोट मांगने को कहा, जहां भाजपा मामूली अंतर से हारी थी। यही नहीं, भाजपा आंध्र में चंद्रबाबू नायडू से भी गठबंधन के रास्ते तलाश रही है। कुछ हफ्ते पहले पार्टी ने सबसे सफल साबित हुए संगठन मंत्री सुनील बंसल को पश्चिम बंगाल, ओडिशा और तेलंगाना का प्रभारी बनाया है। यकीनन, भाजपा के खेवैयों को आने वाली चुनौतियों का अंदाज है। वे उनसे निपटने के उपायों पर काम कर रहे हैं। यहां यह भी गौरतलब है कि भाजपा अंदर ही अंदर बडे़ खेल रचने में महारत रखती है। दल के दलपति विपक्ष को चौंकाने में यकीन रखते हैं। आने वाले वक्त के लिए उन्होंने अपनी आस्तीन में क्या छिपा रखा है, कोई नहीं जानता।
तय है, 2024 की बिसात बिछ चुकी है, पर शुरुआत के ये दांव-पेच किसी निष्कर्ष की मुनादी नहीं करते। दोनों तरफ मंजे हुए खिलाड़ी हैं। अंतिम नतीजे तक इंतजार करना ही बेहतर होगा।
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